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● महाबोधिद्रुमविजयम्
लेखक - प्रफुल्ल गडपाल
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◆ महाबोधि वृक्ष वन्दन
यस्स मूले निसिन्नो व सब्बारिं विजयं अका
पत्तो सब्बञ्जूतं सत्था वन्दे तं बोधिपादपं ।
इमे हेते महाबोधिं लोकनाथेन पूजिता
अहम्पि ते नमस्सामि बोधिराजा नमत्थु ते ॥
(अर्थात् तथागत भगवान् बुद्ध ने जिस महाबोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ही समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके सम्बोधि पाई थी, उस महाबोधि वृक्ष को नमस्कार है। यह महाबोधि वृक्ष लोकनाथ भगवान् बुद्ध के द्वारा पूजा गया है। मैं भी इसे नमस्कार करता हूँ। हे बोधिराजा! मैं आपको नमन करता हूँ।)
◆ समर्पण
सप्तदश्यां तिथौ मासि सितम्बरे मिते ध्रुवम् ।
त्रयोदशोत्तरे काले खिष्टाब्दे द्विसहस्रके ॥
धर्मपालजयन्त्यां च शुभेऽहनि शुभे मते ।
काव्यं शुभं मयारब्धं महाबोधिद्रुमस्मृतौ ॥
समर्प्यते मयेदं वै तस्मै सद्धर्मदर्शिने ।
अर्हते धर्मपालाय सौगताय वराय च ॥
(१७ सितम्बर २०१३ को अनागारिक धर्मपाल जयन्ती के अवसर पर सम्पूर्ण विश्व में अत्यन्त शुभ माने गये इस मंगलकारी दिवस पर उनके मंगलमय कर्मों से पुनः पल्लवित महाबोधि वृक्ष की पावन स्मृति में मैंने इस शुभ काव्य का आरम्भ किया। इस काव्य को मैं सद्धर्म के उसी महान् दृष्टा, अर्हत्, सौगतिक (बुद्ध पुत्र) तथा विश्व की महान् विभूति अनागारिक धम्मपाल को ही सादर समर्पित करता हूँ।) (इसी ग्रन्थ से समुद्धृत)
◆ भूमिका
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स !
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स !!
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स !!!
• महाबोधि महाविहार पर बम हमला : एक काला दिन
०७ जुलाई २०१३! एक काला दिवस! भारत के बिहार प्रान्त के विश्व प्रसिद्ध महाबोधि महाविहार तथा महाबोधि वृक्ष के समीप ९ सीरियल बम ब्लास्ट! एक आतंकी हमला! महाबोधि वृक्ष की कुछ शाखाओं को ही हानि, किन्तु विश्व के करोड़ों लोगों के दिलों पर नश्तर को चोट! भारत की शान्तिपूर्ण देश की छवि को करारा झटका! महाकरुणा के स्रोत के साये में हृदय विदारक विस्फोट!
निश्चय ही इस घटना ने सम्पूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया था। सारे विश्व की नजर इस घटना के ऊपर ही थी, क्योंकि अत्यन्त प्राचीन काल से ही इस जगह का रिश्ता शान्ति और करुणा से विशेष रूप से रहा है। इसी बोधगया की पावन भूमि में राजकुमार सिद्धार्थ एक पीपल वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त करके सम्यक् सम्बुद्ध बनें। तभी से सिद्धार्थ कुमार बोधिराज तथागत सम्यक् सम्बुद्ध कहलायें तथा यह पीपल वृक्ष महाबोधि वृक्ष की संज्ञा से जाना गया। भगवान् बुद्ध को सम्बोधि को इस वृक्ष ने साक्षात अनुभव किया, तभी तो इसकी आभा से करुणा की सहस्रशः धाराएँ निकलती रहती हैं और मानवता को सुकुन और प्रेम से जीने का सन्देश देती हैं। अत्यन्त प्राचीन काल से ही यह वृक्ष करुणा, शान्ति और प्रज्ञा के प्रतीक के रूप में सम्मानित हुआ और सम्पूर्ण विश्व में पूजा जाने लगा था। सारे विश्व के लिए ऐसे शान्ति के प्रतीक पर बम से हमला! क्या दुर्भाग्य है मानवता का?
• स्वयं बुद्ध ने महावृक्ष की वन्दना की
यस्स मूले निसिन्नो व सव्वारि विजयं अका
पत्तो सब्बख़्त सत्था वंदे तंबोधिपादप ।
इमे हेते महाबोधि लोकनाथेन पूजिता
अपि ते नमस्सामि बोधिराजा नमत्थु ते ॥
(अर्थात् तथागत भगवान् बुद्ध ने जिस महाबोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ही समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके सम्बोधि पाई थी, उस महाबोधि वृक्ष को नमस्कार है। यह महाबोधि वृक्ष लोकनायक भगवान् बुद्ध के द्वारा पूजा गया है। मैं भी इसे नमस्कार करता हूँ। हे बोधिराजा! आपको नमस्कार है। यह महाबोधि वृक्ष लोकनायक भगवान् बुद्ध के द्वारा पूजा गया है। मैं भी इसे नमस्कार करता हूँ। हे बोधिराजा! आपको मेरा नमस्कार है।)
उक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि इस महाबोधि वृक्ष को स्वयं तथागत भगवान् बुद्ध ने पूजा था। जिसकी स्वयं तथागत भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध ने पूजा की हो, उस महापावन परम पूज्य महावृक्ष की महत्ता के कहने ही क्या? सम्बोधि प्राप्ति के पश्चात् दूसरे सप्ताह में पूरे सप्ताह भर भगवान् बुद्ध इस महावृक्ष को अनिमेष नेत्रों से निहारते रहें। बोधगया में आज भी यह स्थान 'अनिमेष - लोचन स्थल' के रूप में प्रसिद्ध है। इस प्रकार भगवान् बुद्ध के समय से ही यह महावृक्ष पूज्य और सम्मान्य हो चुका था। बौद्ध प्रतीकों के रूप में इसकी मान्यता तभी से चली आ रही है।
• बौद्ध धर्म में प्रतीक पूजा
बौद्ध परम्परा में प्रतीकों के रूप में भगवान् बुद्ध की वन्दना करने का चलन अत्यन्त प्राचीन है। इस परम्परा में धम्मचक्क (धर्मचक्र), स्तूप, चैत्य, पाद चिह्न, पुण्डरीक (कमल), मुद्राएँ, गज (हाथी), सिंह इत्यादि बौद्ध प्रतीकों के रूप में अत्यन्त समादरणीय हैं, किन्तु महाबोधि वृक्ष तो समधिक पूज्य माना जाता है। यही नहीं, इसकी पत्तियाँ भी अत्यन्त सुपूजित रही हैं। बौद्ध धम्म के प्रत्येक क्रिया कलाप तथा विधि विधान में इसे स्पष्टतया देखा जा सकता है। महापरित्राण पाठ के अवसर पर कलश में पीपल की पत्तियाँ रखकर संस्कार पूर्ण किये जाते हैं। तत्पश्चात् मंगल हेतु इसकी तोरण बनाकर द्वारों पर लगाने का भी रिवाज है। बौद्ध धम्म के कला, वास्तु, संस्कार तथा चित्रकारी आदि में इसका अत्यन्त सुन्दरतया प्रयोग हुआ है। बौद्ध चैत्यों, स्तूपों, गुफाओं तथा विहारों के द्वारों के आकार भी प्रायः पीपल वृक्ष (महाबोधि वृक्ष) की पत्तियों की डिजाइन से प्रभावित रहे हैं, जो आज भी अनवरत रूप से चल रहे है।
• बोधिराजा महावृक्ष कैसे?
महाबोधि वृक्ष के पावन सानिध्य में बैठकर ध्यान करते हुए भगवान् बुद्ध को परम ज्ञान (सम्यक् सम्बोधि) की प्राप्ति हुई, अत: यह महान् महाबोधि वृक्ष इस परम्परा में विशेष रूप से मान्य हुआ। उस काल में उरुविल्व या उरुवेला के रूप में प्रसिद्ध यह स्थान अत्यन्त प्रकृति रम्य, अतीव सुन्दर और योगादि क्रियाओं की सिद्धि के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध था। आधुनिक भारत के बिहार राज्य के बोधगया (प्राचीन नाम उरुबिल्व/उरुवेला) नामक अतीव सुन्दर और प्रकृति के आंचल में बसे जिले में नैरंजरा (निरंजना) नदी के सुरम्य तट पर महाबोधि वृक्ष आज भी सुशोभित हो रहा है। इसी वन में महाबोधि वृक्ष के नीचे मार युद्ध के पश्चात् भगवान् बुद्ध के हृदय में महान् ज्ञान का उदय हुआ। मार युद्ध की समाप्ति के पश्चात् महाबोधि वृक्ष के नीचे शोभायमान वज्रासन पर प्रतिष्ठित मारजित (भगवान् बुद्ध) ने लोक के समस्त प्राणियों के कल्याण तथा सुख के सिद्धान्तों तथा तत्त्व ज्ञान (सम्बोधि) को प्राप्त किया था।
• महासम्बोधि से स्पन्दित महावृक्ष
बोधगया की पावन धरती पर स्थित यह महाबोधि वृक्ष समस्त विश्व में बसे बौद्ध अनुयायियों के लिए भारत का गौरवरूपी मुकुट मणि के समान गौरवशाली व सुपूज्य है। यह महाबोधि वृक्ष सभी के लिए अत्यन्त सम्मानीय, श्रद्धा भाग तथा पूज्य है, जिसने भगवान् बुद्ध के द्वारा प्राप्त सम्बोधि का स्वयं भी साक्षात्कार किया था। निश्चित रूप से शाक्य राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को तथागत बुद्ध के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में इस महाबोधि वृक्ष की भी महती भूमिका रही है। सिद्धार्थ को बुद्धत्त्व दिलाने में इस महावृक्ष ने भी अवश्य ही सहभागिता प्रदान की। तभी तो बोधि प्राप्ति के पश्चात् सिद्धार्थ तो 'सम्यक् सम्बुद्ध' कहलाये ही, किन्तु यह वृक्ष भी 'महाबोधि वृक्ष' की अभिख्या से विख्यात हुआ।
मार युद्ध समाप्ति के पश्चात् महाबोधि वृक्ष के नीचे एक अलौकिक घटना घटी। जब शाक्यमुनि सिद्धार्थ गौतम को इस महाबोधि वृक्ष के नीचे तत्त्व दर्शन (बुद्धत्त्व प्राप्ति) हुआ, इस समय इस अलौकिक घटना का प्रभाव इस महाबोधि वृक्ष पर भी हुआ। निश्चय ही सिद्धार्थ की बोधि प्राप्ति से इस महाबोधि वृक्ष स्पन्दित हुआ। सम्बोधि से यह महावृक्ष भी संवेद्यता (महाज्ञानावस्था) को प्राप्त हुआ तथा इसे भी परम गति प्राप्त हुई।
माना जाता है कि जब तिलोक दीप (तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले महान् ज्ञानी तथागत भगवान् बुद्ध) के द्वारा प्राप्त सम्बोधि के ज्ञान का प्रकाश चर (चेतन/प्राणियों) व अचर (जड़/वस्तुओं) को आलोकित कर रहा था। इस घटना का वर्णन अत्यन्त अलंकृत और रोचक शैली में अनेक प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है। पालि तथा संस्कृत ग्रन्थों के वर्णनों के अनुसार, 'बुद्धत्व प्राप्ति के समय सम्पूर्ण विश्व में एक अनोखा आनन्द छा गया था। जगत के समस्त प्राणी एक अलौकिक आभा से प्रकाशित होकर स्वयं को धन्य कर रहे थे, किन्तु मार दु:खी था। उसने अनेक प्रकार के हमलों से बोधिसत्त्व सिद्धार्थ को भयभीत करना चाहा, किन्तु वह अन्ततोगत्वा पराजित ही हुआ। मार पराजय के पश्चात् मारजित् बोधिसत्त्व पर इस पीपल रूपी महाबोधि वृक्ष ने अंकुर की वर्षा की। इससे ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे वह अंकुर रूपी रत्नों से बोधिसत्त्व का सत्कार कर रहा हो। इसी रात्रि में बोधिसत्त्व को बुद्धत्व की प्राप्ति होने पर पौधों पर रंग बिरंगे फूल खिलने लगे तथा वृक्ष फलों से लद गये। पक्षियों के कल - रव का नाद प्रकृति के सुरम्य संगीत में बदल गया था। सारी पृथ्वी में एकबार ही बड़ा कंपन हुआ।' इस प्रकार की अनेक अलौकिक घटनाओं के सुन्दर वर्णन तत्र तत्र प्राप्त होते हैं।
निश्चय ही तब महाबोधि वृक्ष ने भी इस अलौकिक व अद्भुत ज्ञान का अनुभव किया था। इसी ज्ञानानुभव के फल स्वरूप यह महावृक्ष सम्बोधि को प्राप्त हुआ। तथागत भगवान् गौतम बुद्ध को प्राप्त सम्बोधि के पश्चात् महाबोधि वृक्ष के द्वारा अनुभूत पावन ज्ञान की दिव्यता से इसकी सम्पूर्ण धरातल पर प्रसिद्धि तथा मान्यता हुई। इस महावृक्ष का यह सम्मान तथा मान्यता सम्पूर्ण विश्व में आज भी उसी गरिमा से हो रही है। बोधगया की यह मंगल दायिनी भूमि विश्व में अत्यन्त पावन मानी जाती है। प्रतिवर्ष बोधगया की इस पवित्र और पुण्यमयी भूमि के दर्शन करने के लिए अखिल विश्व के अनेक देशों से बुद्ध के अनुयायी यहाँ पहुँचते हैं। इस परम शान्त महाबोधि वृक्ष ने शाक्य मुनि तथागत सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा प्राप्त परम ज्ञान के स्पन्दन का भली प्रकार से अनुभव किया था। इस कारण ही आज भी इसके नीचे विचरण करने वाले समस्त मानव परम शान्ति का अनुभव करते हैं। निश्चय ही इस महाबोधि वृक्ष ने असीमित शान्ति को पा लिया है। तभी तो इसके नीचे आने वाले लोग इसकी अपार करुणा को प्राप्त करते हैं।
• सारे विश्व का पूज्य केन्द्र : बोधगया
सम्पूर्ण विश्व के लोगों के लिए यह बोधगया नगर अत्यन्त पवित्र तथा मंगलदायी माना जाता है। विश्व के मानव हमेशा ही इसके दर्शन करने की लालसा मन में पाले रहते हैं तथा सौभाग्य से यहाँ पहुँचने पर अत्यन्त सन्तुष्ट होते हैं। भगवान् बुद्ध ने अपने अन्तिम उपदेश में कुसीनारा (कुशी नगर) में महापरिनिर्वाण सूत्र में चार महापवित्र तीर्थ स्थानों का उल्लेख करते हुए जीवन में अवश्य ही न्यूनातिन्यून एक बार इनके दर्शन करने का निर्देश किया। वे चार पवित्र तीर्थ स्थान हैं।
१. जहाँ सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ (लुम्बिनी वन)
२. जहाँ सिद्धार्थ गौतम बुद्ध को ज्ञानोदय (सम्बोधि) की प्राप्ति हुई (उरुबिल्व/उरुवेला अथवा बोधगया)
३. जहाँ तथागत सम्यक् सम्बुद्ध ने प्रथम धम्मचक्र का प्रवर्तन किया (सारनाथ का मृगदाव उपवन)
४. जहाँ सम्यक् सम्बुद्ध को महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई (कुसीनारा/ कुशीनगर)
इसी बुद्धानुवचन के फल स्वरूप बोधगया की यह पवित्र धरा सम्पूर्ण विश्व में पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गई है। जापान देश (प्राचीन नाम उदय वर्ष अथवा सूर्यमूल) के कोमल तथा पवित्र हृदय वाले बुद्धानुयायी भारत में आने पर यहाँ की पवित्र भूमि पर जूता या चप्पल पैर में धारण नहीं करते हैं। भगवान् बुद्ध की जन्मभूमि होने के कारण वे इस भूमि को अतीव पावन मानते हैं तथा अपने इसी विश्वास के कारण वे पैरों में चप्पल या जूते नहीं पहनते हैं। वे कभी भी जिस दिशा में जम्बूद्वीप (भारत देश) है, उस ओर पैर रखकर नहीं सोते हैं। अर्थात् सोते वक्त जापान के बुद्धानुरागी नागरिक भारत की ओर पैर रखकर सोने से परहेज करते हैं, क्योंकि अपने आराध्य की जन्मभूमि व बोधिस्थली की ओर पैर करके सोना अश्रद्धा को ही दर्शाता है। निश्चय ही जापानियों का बुद्ध के प्रति श्रद्धा भाव अनुपम है तथा अनुपम है उनकी बुद्ध की जन्म भूमि व बोधिस्थली के प्रति अनन्य श्रद्धा - भक्ति।
बर्मा देश के लोग अत्यन्त परिश्रमी और श्रद्धावन्त होते हैं। सारे जीवन वे अपने पूर्ण प्रयत्नों से धनोपार्जन करते हैं। इस उपार्जित पूँजी को वे अपने बुढ़ापे या अन्य कार्यों के लिए संचित न करते हुए पवित्र तीर्थ स्थल बोधगया के दर्शन के लिए ही खर्च कर देते हैं। इस यात्रा में चाहे जितना भी व्यय क्यों न हो जाये, उनकी श्रद्धा को इससे कोई अन्तर नहीं आता। निश्चय ही उनका श्रद्धा, भाव तथा त्याग अत्यन्त ही सराहनीय है।
सीलोन (श्रीलंका) देश से भारत के सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से ही है। विशेषत: बौद्ध धम्म के प्रभाव स्वरूप यह मैत्री पूर्ण सम्बन्ध और भी अधिक प्रगाढ़ हुए हैं। श्रीलंका में भगवान् बुद्ध तथा उनके प्राचीन धम्म थेरवाद के प्रति अत्यधिक आसक्ति है। इसी कारण वहाँ के लाखों सभ्य नागरिक प्रति वर्ष इस महातीर्थ के दर्शन करने के लिए आते हैं।
दक्षिण कोरिया, थाईलैण्ड (श्याम देश), वियतनाम, ब्राजील, तिब्बत (भोट देश), नेपाल, मंगोलिया, चीन, अर्जेन्टाइना, बुलगारिया, आस्ट्रेलिया, फिजी, रुस, बांग्लादेश, कनाडा, डेनमार्क, इजिप्त, भूटान, अफगानिस्तान, कांगो, अल्जेरिया, फ्रांस आदि १०० से भी अधिक देशों से प्रतिवर्ष उन उन देशों के बुद्ध को मानने वाले नागरिक आकर बोधगया के महाबोधि वृक्ष तथा महाबोधि महाविहार के दर्शन करते हैं। अमेरिका, अंगोला, आर्मेनिया, अरुबा, ऑस्टिया, बहमास, बहरीन, बर्बादोस, बेलारुस, बेल्जियम, बरमुडा, बोलिविया, बुरकीना फासो, कम्बोडिया कैमरुन, कनाडा, चाड, चिली, कांगो, क्यूबा, साइरस, डोमिनीका, टीमोर एक्वाडोर, इस्टोनिया, इथीओपिया, फिनलैण्ड, जर्मनी, घाना, ग्रीक, गुआटे माला, गीनिया, गुयाना, हैटी, होण्डुरस, हांग - कांग, हंगरी, आइस लैण्ड, ईरान, ईराक, आयरलैण्ड, इजराइल, इटली, जॉरडन, कजाकिस्तान, केन्या, कुवैत, लाओस, लाटविया, लैबनान, लीबेरिया, लिबिया, मालदीव, माली, माल्टा, मारिशस, मैक्सिको, मारोक्को, नामिबिया, नारु, नीदरलैण्ड, न्यूजीलैण्ड, नीगेरिया, नार्वे, ओमान, पाकिस्तान, फलीस्तीन, पनामा, पापुआ न्यूगीनिया, पराग्वे, पेरु, फीलिपाइन्स, पोलैण्ड, पुर्तगाल, कतर, रोमानिया, साउदी अरेबिया, सेनेगल, सर्बिया, सिंगापुर, श्लोवाकिया, श्लोवेनिया, सोलोमन, आइसलैण्ड, साउथ आफ्रिका, स्पैन, सूडान, सूरीनाम, स्वेडन, स्वीटजरलैण्ड, ताइवान, तजाकिस्तान, तंजानिया, टोगो, टोंगा, तुनिसिया, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, तुवालु, युगाण्डा, उक्रेन, यूनाइटेट अरब एमरेटस, यूनाइटेड किंगडम, यूनाइटेड स्टेट्स, उजबेकिस्तान, वेनेजुएला, येमेन, जाम्बिया, जिम्बाब्वे इत्यादि अनेक देशों से वहाँ के नागरिक बोधगया के दर्शन करने आते हैं। विश्व के सभी देशों से श्रद्धा से समन्वित होकर बुद्धानुयायी बोधगया पहुँचकर धन्यता को प्राप्त करते हैं। निश्चय ही यह महाबोधि वृक्ष समस्त विश्व के मानवों को शान्ति और सुख की उपलब्धि कराता है।
• विश्व का चौथा महाधर्म : बौद्ध धम्म
प्राचीन काल से ही अपनी महान् शिक्षाओं और मानव - कल्याण की भावना से ओत प्रोत ज्ञान राशि से बौद्ध धम्म भारतीय उपमहाद्वीप में अत्यन्त प्रचारित हुआ। सम्राट अशोक तथा उनके बाद के महान् राजाओं ने इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभाई। उस उस काल के महान् आचार्यों तथा बौद्ध भिक्खुओं के अथक प्रयासों से ही यह धर्म विश्व के कोने कोने में पहुँचा। यहाँ के जगत प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों, मठों और शिक्षा केन्द्रों ने भी बौद्ध धम्म को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने में महत्ती भूमिका निभाई। जब जब बौद्ध धम्म के खिलाफ आततायियों ने आक्रमण किये, तब तब इस देश के बौद्ध भिक्खु अनेक कष्ट और विपदाओं को सहते हुए देश - देशान्तर में जाकर बौद्ध धम्म का प्रचार करते रहें। उस उस देश में जाकर वहाँ की जलवायु तथा संस्कृति से सामंजस्य स्थापित करते हुए वहाँ की भाषाओं को अपनाकर बौद्ध धम्म ने जनमानस को शान्ति तथा अहिंसा से जीने का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार यह धम्म सारे विश्व में लोकप्रिय होता गया। अनेक देशों ने बौद्ध धम्म को राष्ट्र धम्म का दर्जा देकर इसे सम्मानित तथा स्वयं को सुखी किया। आज विश्व में इसके मानने वाले बहुत बड़ी संख्या में हैं। धर्मानुयायियों की संख्या की दृष्टि यह सद्धम्म विश्व का चौथा बड़ा धर्म बन चुका है।
• पूर्व बुद्ध और उनके बोधि वृक्ष
त्रिपिटकादि बौद्ध ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होते हैं कि तथागत सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के पूर्व अनेक बुद्ध हो चुके हैं तथा उनके पश्चात् भी बुद्धों के होने की पूर्ण सम्भावना है। पूर्व बुद्धों के वर्णन के प्रसंग में यह भी उल्लेख प्राप्त होता है कि प्राचीन काल से ही बोधि प्राप्ति में उस उस काल में उन उन महावृक्षों ने किस प्रकार उन उन बुद्धों की सहायता की। सभी बुद्धों के बोधि वृक्ष होते हैं, इस सिद्धान्त के आधार पर अवश्य ही भविष्य में आविर्भूत होने वाले बुद्ध का बोधि वृक्ष भी होगा ही। इसी परम्परा में उरुबिल्व (उरुवेला) अथवा आधुनिक बोधगया के महान् वन में प्रकृति रम्य वातावरण में शाक्य मुनि सिद्धार्थ गौतम की बोधि प्राप्ति में महाबोधि वृक्ष सहायक हुआ।
• बोधगया का महत्त्व
आज भी परम पावन महाबोधि वृक्ष बिहार के बोधगया में सुशोभित हो रहा है। समस्त विश्व के लिए यह वृक्ष कल्याण का सूचक है तथा समस्त मानव समाज के लिए पवित्र तथा शान्ति प्रदान करने वाला है। मुस्लिमों के लिए मक्का - मदीना, हिन्दुओं के लिए कैलास मानसरोवर तथा ईसाइयों के लिए बेथलहम को अत्यन्त पावन माना जाता है, इसी प्रकार बौद्ध धर्मानुयायियों के लिए बोधगया की इस पावन धरा का उनसे भी अधिक महत्त्व है तथा यह महत्त्व किसी अन्ध विश्वास या लाभेच्छा से नहीं बल्कि पूर्ण वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पहलुओं के आधार पर है। आज 'ग्लोबल वाभिंग' तथा 'पर्यावरण प्रदूषण' की विकट समस्या के सन्दर्भ में भी यह महाबोधि वृक्ष प्रतीक स्वरूप पर्यावरण संरक्षक के रूप में महती भूमिका निभा रहा है। मानव और पर्यावरण के पारस्परिक प्रेम का यह अद्भुत प्रतीक है।
• बौद्ध धम्म, वृक्ष और पर्यावरण संरक्षण
साम्प्रतिक युग में सकल प्राणी जगत पर्यावरण के असन्तुलन से प्रभावित होकर अत्यन्त विकट परिस्थितियों में फंस रहा है। वैश्विक उष्णता (Global Warming) तथा पर्यावरण प्रदूषण के द्वारा उत्पन्न विकारों के कारण बहुत सारे जीवों, वनस्पतियों तथा वृक्षों की प्रजातियाँ अन्तिम सांसे गिन रही हैं तथा पर्यावरण प्रदूषण से जन्मी विविध समस्याओं के कारण मानव का जीवन भी दुष्कर हो रहा है। आज पर्यावरण प्रदूषण सम्पूर्ण विश्व की एक बड़ी समस्या तथा चुनौती है। सम्पूर्ण विश्व में इस विषय पर चिन्ता तथा सम्मेलन हो रहे हैं कि कैसे इस समस्या को हल किया जा सके। ऐसे संकटापन्न काल में भगवान् बुद्ध तथा बौद्ध परम्परा के आचार्यों द्वारा उपदिष्ट पर्यावरण संरक्षण के उपायों से प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुए प्रदूषण से मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।
वस्तुत: भगवान् बुद्ध न केवल एक धर्म प्रवर्तक थे, अपितु वे महान् पर्यावरणविद् भी थे। उनके द्वारा उपदिष्ट मैत्री, अहिंसा, करुणा, बन्धुत्व इत्यादि भावों से संवलित शिक्षा प्राणिमात्र सहित वृक्षों और वनस्पतियों के लिए भी समानतया कल्याणकारी हैं। प्राकृतिक दृष्टान्तों के माध्यम से अत्यन्त सरल विधि से धर्मोपदेश करना उनके पर्यावरण प्रेम को प्रदर्शित करता है।
ध्यातव्य है कि भगवान् बुद्ध के जन्म से लेकर महापरिनिर्वाण तक जीवन की सभी विशिष्ट घटनाएँ प्रकृति के सानिध्य में ही सुसम्पन्न हुई। सिद्धार्थ का जन्म शाल वृक्षों के नीचे लुम्बिनी वन में हुआ। प्रकृति के साहचर्य में ही उनका बाल्य काल बीता। कुशाओं पर आसनस्थ होकर उन्होंने वन्य वातावरण में तपश्चर्या की। कालान्तर में वे बोधगया में महाबोधि महाद्रुम के पावन सान्निध्य में बुद्धत्व को प्राप्त हुए तथा सारनाथ में आम्र वृक्षों के नीचे पञ्च वर्गीय भिक्षुओं को प्रथम धर्मोपदेश (प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन) किया। अन्त में, शाल वृक्षों के नीचे ही प्रकृति के सान्निध्य में उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
सिद्धार्थ कुमार कोई सामान्य व्यक्ति तो थे नहीं; वे एक राज्य के राजकुमार थे, राजा के पुत्र थे। फिर भी प्रकृति के साहचर्य में उनका जीवन बीता। ये असामान्य घटना घटी, इतिहास में। ऐसा वर्णन विश्व के इतिहास में दुर्लभ है।
इन घटनाओं के अतिरिक्त उन्होंने नगरीय जीवन की अपेक्षा वनों, उपवनों में समधिक वास किया। इस प्रकार भगवान् बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन प्रकृति के आँचल में व्यतीत हुआ। महाबोधि वृक्ष से उनकी प्रीति तो जगत् प्रसिद्ध है ही।
• महाबोधि वृक्ष से जन्मना और कर्मणा सम्बन्ध
इस महाबोधि वृक्ष का सम्यक् सम्बुद्ध के जीवन से जन्म और कर्म दोनों आधार पर अत्यन्त प्रगाढ सम्बन्ध रहा है। जिस दिन शाक्य कुमार सिद्धार्थ ने माता महामाया की पावन कुक्षी से लुम्बिनी के पावन वन में जन्म लिया, उसी दिन इस वृक्षराज महाबोधि वृक्ष का भी उरुवेला में अंकुरण हुआ। कालान्तर में इसी महाबोधि वृक्ष के नीचे मुनिराज (सम्यक् सम्बुद्ध) को बुद्धता (सम्बोधि) की प्राप्ति हुई, उससे सिद्ध होता है कि दोनों की बन्धुता (भ्रातृत्व) जन्म से ही था।
सिद्धार्थ जन्म के दिन ही महाबोधि वृक्ष के साथ साथ कुमारी गोपा (यशोधरा), राजकुमार आनन्द, छन्न (सारथि छन्दक), कालुदायी अमात्य, आजातीय गजराज तथा अश्वराज कन्थक का जन्म भी हुआ था। इसी अवसर पर छः रत्नों से भरे हुए कुम्भों का भी आविर्भाव हुआ, ऐसा वर्णन भी अनेकत्र प्राप्त होता है। बुद्ध के जीवन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले इन सभी का एक ही दिन जन्म लेना निश्चय ही एक महान् संयोग था। इसी कारण इसके लिए 'सहजातम्' इस शब्द का प्रयोग किया गया। सहजात शब्द का अर्थ होता है साथ साथ पैदा होना। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के साथ जन्म और कर्म दोनों दृष्टियों से अटूट सम्बन्ध होने के कारण इस महाबोधि वृक्ष की प्रशस्ति अत्यन्त अद्भुत है। निश्चय ही वन्द्य है यह महावृक्ष!
• ह्वेन सांग के विवरण
प्राचीन काल में भारत भ्रमण करने आये चीनी बौद्ध धर्मानुयायी ह्वेनसांग ने बोधगया के इस महापवित्र स्थल तथा महापुण्यशाली महाबोधि वृक्ष के विषय में अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया है। उसने अपने यात्रा विवरण में लिखा है '-
'यह महावृक्ष विश्व में अद्वितीय, अनुपम, अतुल्य, अपूर्व तथा अप्रतिम है।'
उसके विवरणों में महाबोधि महाविहार तथा महाबोधि वृक्ष का वर्णन कितनी सजीवता और महत्त्वशालिता के साथ मिलता है, यह अधोलिखित वर्णन से स्पष्ट हो जायेगा -
'यह स्थान सम्पूर्ण विश्व के मध्य भाग में प्रतिष्ठित (सस्थित) है तथा सर्वत्र अत्यन्त पवित्र माना जाता है। इसका मूल भाग पृथ्वी के एकदम मध्य में सोने के एक चक्र (आरों के चक्के) से ढंका हुआ है। सृष्टि के प्रारम्भ में इसकी रचना भद्रकल्प में होती है। इसे वज्रासन इसलिए कहते हैं क्योंकि यह ध्रुव है, नाश रहित है और सारी पृथ्वी का भार इसी वज्रासन पर अवलम्बित है। यदि यह आविर्भूत न हुआ होता, तो यह पृथ्वी भी अस्तित्त्व में नहीं रही होती। वज्रासन के अतिरिक्त संसार में दूसरा कोई आधार नहीं है, जो वज्र समाधिस्थ को धारण कर सके। इस प्रकार बिलकुल ऐसे ही महत्त्वपूर्ण (भद्र श्रेष्ठ) स्थान से ही सटे हुए हैं विश्व की दो महान् विरासतें - परम पावन महाबोधि वृक्ष और महाबोधि महाविहार।'
ह्वेन सांग ने अपने यात्रा वर्णनों में महाबोधि वृक्ष की श्रेष्ठता, ज्येष्ठता तथा महिमा का बड़ा ही रोचक वर्णन किया। यात्रा में अनेक कष्टों को सहते हुए बोधगया की पावन नगरी में पहुँचकर महाबोधि वृक्ष की सुखकारी तथा शीतल छाया में उसने उसी प्रकार साक्षात निर्वाण का सुख अनुभव किया, जैसे स्वयं उसे ही बुद्धत्व प्राप्त हो गया हो। उसने अपने यात्रा प्रसंगों में महाबोधि वृक्ष की समूर्जस्वल (उत्कृष्ट) तथा गौरवपूर्ण कथोपाख्या का प्रमुख रूप से वर्णन किया। वह अपने यात्रा प्रसंगों में लिखता है -
'इस महान् वृक्ष के पत्ते वर्ष में कभी भी नहीं गिरते हैं, चाहे शरद ऋतु की ठण्ड हो या ग्रीष्म ऋतु का अत्यधिक ताप। बुद्ध के निर्वाण के दिन अर्थात् वैशाख पूर्णिमा (त्रिगुण पावन बुद्ध पूर्णिमा) के अवसर पर यह महाबोधि वृक्ष अपने पत्तों को गिराकर उसके पश्चात् शीघ्र ही हरिता को प्राप्त होता है अर्थात् हरा भरा हो जाता है। जब यह महावृक्ष हरा भरा हो जाता है, तब इस सुन्दर, मंगलमय व सुखकारी वृक्ष के दर्शन करने के लिए दूर देशों से राजा - महाराजा आते हैं तथा इसकी शीतल छाया को प्राप्त करके वे अपने सारे कष्टों से निजात पाते हैं। सभी राजा - महाराजा अपने परिजनों, अमात्यों, अधिकारियों और सैन्य बल सहित एकत्र होकर धूपादि की सुगन्धियों, दीप मालिकाओं, पुष्प मालाओं तथा दुग्धाभिषेक से इस परम पावन बोधिराज (महाबोधि वृक्ष) को नमन करते हैं। यहाँ आवर्ष प्रतिदिन इस परम पूज्य महाबोधि वृक्ष को पूजा अर्चना करने के क्रम में रंग बिरंगी पताकाओं, तोरणों, ढोल - नगाड़ों तथा नाच - गानों सहित हर्षोल्लास से महान् उत्सव मनाया जाता है। यहाँ आये सभी लोग महोत्सव को मनाकर जाते समय इस परम पावन महाबोधि वृक्ष के शुभकारी और स्वर्ण की तरह चमकदार पत्तों को अपने साथ लेकर जाते हैं। महाबोधि वृक्ष के अत्यन्त पावन पत्तों को ले जाकर वे सोने, चाँदी तथा मोतियों से मढ़कर अपने घरों में पूज्य स्थान पर प्रतिष्ठापित करके साष्टांग प्रणाम करते हुए सर्वदा पूजते हैं।'
• त्रिरत्ल का प्रतीक : महाबोधि वृक्ष
इस महाबोधि वृक्ष का ऐतिहासिक आख्यान अत्यन्त भव्य तथा गौरवपूर्ण है। निश्चय ही यह महाबोधि वृक्ष इतिहास का केन्द्रभूत बिन्दु है, जो इतिहास में अत्यन्त मान्य तथा पूज्य था। सम्बोधि के पश्चात् सात सप्ताह इस महाबोधि वृक्ष के आस पास विभिन्न अवस्थाओं में आनन्दपूर्वक व्यतीत करने के पश्चात् वे सारनाथ की ओर चल पड़े। इसके पश्चात् वे कभी भी पुनः इस ओर नहीं आयें। ऐसी स्थिति में महाकारुणिक तथागत भगवान् बुद्ध की अनुपस्थिति में वहाँ बुद्ध के उत्तराधिकारी के रूप में साक्षात उपस्थित यह महाबोधिद्रुमेश्वर (महाबोधि वृक्ष) अत्यन्त शुभ तथा पूज्य माना गया है।
बौद्ध परम्परा में यह वृक्ष बुद्ध, धम्म और संघ रूपी त्रिरत्न का प्रतीक स्वरूप ही है। इस महाबोधि वृक्ष को भगवान् बुद्ध ने अपना स्वरूप माना। वस्तुत: वे स्वयं भी इसे पूजते थे। उन्होंने कभी भी किसी को भी संघ में अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया, किन्तु उन्होंने यह सम्मान इस महाबोधि वृक्ष को प्रदान किया। निश्चय ही बुद्ध द्वारा पूज्य यह महावृक्ष धन्य है!
एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती से बाहर अन्यत्र विहार कर रहे थे। उनके श्रावस्ती से अन्यत्र चले जाने पर उनके वियोग में अनाथपिण्डद आदि अत्यन्त दु:खी हो रहे थे। वे भगवान् बुद्ध का वियोग सहन नहीं कर पा रहे थे। कालान्तर में भगवान् बुद्ध के पुनः श्रावस्ती वापस आने पर अनाथपिण्डद ने उनसे कहीं अन्यत्र न जाकर श्रावस्ती में ही वास करने की अभ्यर्थना की। अनाथपिण्डद के ऐसे प्रीतिकर वचनों को सुनकर महाकारुणिक भगवान् तथागत गौतम बुद्ध ने अत्यन्त शान्त स्वरों में कहा - 'आप उरुवेला से महाबोधि वृक्ष की शाखा लाकर जेतवनाराम में रोपित करें।' उन्होंने उसे अपना प्रतीक स्वरूप बताकर उसे पूजने का निर्देश भी दिया था। इसके पश्चात् श्रावस्ती के जेतवनाराम में महाबोधि वृक्ष की एक शाखा को लाकर रोपित किया गया। वह शाखा शीघ्र ही महाविशाल वृक्ष बन गया। आनन्द के द्वारा रोपित होने के कारण यह बोधिवृक्ष 'आनन्द - बोधि वृक्ष' के रूप में आज भी गरिमामय उपस्थिति दर्शा रहा है और श्रद्धापूर्वक पूजा जा रहा है।
• सम्राट अशोक और महाबोधि वृक्ष
कलिंग के संग्राम में नरसंहार और रक्तपात को देखकर सम्राट अशोक को अत्यन्त दु:ख हुआ। इस युद्ध से निराश होकर ही उन्होंने शान्ति प्रदान करने वाले तथा करुणा से परिपूर्ण सद्धम्म को स्वीकार किया। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात् अपने गुरु स्थविर उपगुप्त से प्रेरणा तथा उद्बोधन प्राप्त करने के पश्चात् सम्राट अशोक ने चतुरंग बल सहित बौद्ध तीर्थ्यो की दीर्घ यात्राएँ पूर्ण की। इन बौद्ध- तीर्थ यात्राओं का उसके जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ा। बोधगया की यात्रा के दौरान सम्राट अशोक की महाबोधि वृक्ष के प्रति विशेष आसक्ति हो गई थी। महाबोधि वृक्ष के प्रति उनकी आसक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्हें जब भी कोई मूल्यवान रत्न या कोई विशिष्ट वस्तु उपहार स्वरूप प्राप्त होती थी, तो वे उसे महाबोधि वृक्ष को भेंट कर देते थे। अपनी सभी मूल्यवान वस्तुएँ तो वे पूर्व में ही इसे भेंट कर ही चूके थे।
सम्राट अशोक की महाबोधि वृक्ष के प्रति इस अतीव आसक्ति को देखकर उनकी प्रिय रानी तथा अग्रमहिषी तिष्यरक्षिता (तिस्सरक्खित/तिस्सरक्खा) अत्यन्त खिन्न हो गई थी। वह इसे एक सौतन की तरह मानने लगी तथा बौद्ध धम्म के प्रति द्वेष रखने लगी। फिर उसने इस महाबोधि वृक्ष को समाप्त करने के लिए अनेक षड्यन्त्र किये। उसके कहने पर मातंगी ने जप करके बोधिवृक्ष को सूत्र बाँध दिया। इस प्रकार उसके षड्यन्त्रों के कारण महाबोधि वृक्ष को अत्यन्त हानि हुई और वह सूखने लगा। 'महाबोधि वृक्ष के सूखने की घटना' को सुनते ही सम्राट अशोक मूछित हो उठे। होश आने पर उन्होंने अपनी अनुभूति को इस प्रकार प्रकट किया -
दृष्ट्वा न्वहं तं दुमराजमूलं
जानामि दृष्टोऽध मया स्वयम्भूः।
नाथदु मे चैव गते प्रणाश प्राणाः
प्रयास्यन्ति ममापि नाशम् ॥
(दिव्यावदानम् २४, ७५)
(अर्थात् इस द्रुमराज को देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने साक्षात् स्वयम्भू (सम्यक् सम्बुद्ध) के दर्शन कर लिये है, यदि इस महाबोधि वृक्ष (नाथद्रुम) को कोई हानि हुई तो निश्चय ही मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।)
इस प्रकार सम्राट अशोक को इस महावृक्ष पर श्रद्धा को देखकर तिष्यरक्षिता ने महाबोधि वृक्ष को बचाने हेतु वृक्ष से सूत्र खोलकर उसके चारों ओर मिट्टी डलवाई तथा हजारों घड़े दूध का सिंचन कराया। फिर कुछ ही दिनों में यह महाबोधि वृक्ष पूर्ववत लहलहाने लगा। इससे अशोक अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यहाँ एक भव्य महाविहार बनवाया, 'महाबोधि महाविहार' के नाम से जगत् प्रसिद्ध हुआ।
इसके पश्चात् सम्राट अशोक ने भगवान् बुद्ध तथा बौद्ध परम्परा से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्बद्ध सभी तीर्थ स्थानों को शुभ और मन को आनन्द प्रदान करने वाली यात्राएँ की। सम्राट अशोक ने पालि, प्राकृत तथा अन्यान्य देशीय भाषाओं में लौह स्तम्भों तथा शिलालेखों पर धर्म के अनुसार व्यवहारिक ज्ञान तथा शिक्षाओं से समन्वित सद्वचन खुदवाकर उन्हें प्रजा के कल्याण के लिए राष्ट्र में अनेक स्थानों पर स्थापित करवाया। उन्होंने बौद्ध धम्म के ८४.००० धर्म स्कन्धों पर इतनी ही संख्या में महाविहारों, चैत्यों तथा धर्म संस्थाओं की स्थापना कराई।
सम्राट अशोक ने प्रजा के कल्याण के कार्यों में रात - दिन रत रहते हुए अनेक महान् कार्यों को करके इतिहास में एक आदर्श स्थापित किया। विश्व के इतिहास में सम्राट अशोक महानतम प्रजापालक शासक के रूप में ख्यात हैं। वे धर्म की रक्षा करने वाले तथा इस धर्म को विश्व व्यापी बनाने वाले धुरन्धर तथा महान् प्रचारक थे।
सम्राट अशोक ने इस महाबोधि वृक्ष के संरक्षण के लिए अनेक प्रकार के उपाय किये। उन्होंने इसके संरक्षण के लिए जो भी कार्य कियें, उनमें वे शत प्रतिशत सफल भी हुए। धर्मनायक सम्राट अशोक ने महाबोधि वृक्ष तथा वजासन की सुरक्षा व शोभा की दृष्टि से इनके चारों ओर अत्यन्त मजबूत और सुन्दर कलाकृतियों से शोभित भीत्तियों का निर्माण कराया। उन्होंने इसी परिसर में अतीव सुन्दर कला युक्त शिला निर्मित हस्ति स्तम्भ भी स्थापित कराया, जो आज भी अपने इतिहास की गौरव गाथा का विज्ञापन कर रहा है।
• थेरी संघमित्रा और श्रीलंका में बोधिवृक्ष
सम्राट अशोक ने विश्व में शान्ति और मैत्री की स्थापना करने के उद्देश्य से दूर देशों में महान् भिक्षुओं के संघ से परिषदें बनाकर भेजी। इतिहास में सम्राट अशोक के समान सद्धर्म वत्सल, धर्मज्ञ और महात्यागी सम्राट् देखने में नहीं आता। उन्होंने अपने प्रिय पुत्र महामहिन्द (महामहेन्द्र) को बौद्ध धम्म के प्रचार के लिए श्रीलका (सिरीलंका/सीलोन) देश भेजा। उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री संघमित्रा को भिक्षुणी बनाकर भिक्षुणी संघ की स्थापना के उद्देश्य से श्रीलंका देश भेजा। उस तापसी ने बोधगया से महाबोधि वृक्ष की उत्तराधिकारिणी शाखा को वहाँ के अनुराधपुर नामक नगर में रोपित किया और ख्याति को प्राप्त हुई। अशोक पुत्री भिक्षुणी संघमित्रा के द्वारा श्रीलंका में जब बोधिवृक्ष का रोपण किया गया तो उसे प्राप्त करके वहाँ के लोग अत्यन्त प्रमुदित हुए और स्वयं को धन्य किया। यह उनके लिए वैसा ही था जैसे किसी अन्धे को एकाएक आँखें मिल जायें और वह सारे जग के रंगों का दर्शन कर रहा हों। तब से आज तक उस महावृक्ष को देखकर लोग श्रद्धा से परिपूरित होकर उसका गुण कीर्तन और पूजन अर्चना करते आ रहे हैं।
आज भी श्रीलंका के अनुराधपुर नामक नगर में यह सुन्दर बोधिवृक्ष सुशोभित हो रहा है। निश्चय ही यह बोधिवृक्ष का दायाद (उत्तराधिकारी) है और इससे सारी बौद्ध परम्परा ऐतिहासिक और प्रामाणिक मानी जा रही है। श्रीलंका देश में इस बोधि वृक्ष के कारण ही सद्धर्म प्रचारित हुआ। इसकी मान्यता तथा पूजा पूर्ण श्रद्धा और आसक्ति के साथ आज भी अनवरत रूप में जारी है। बोधिवृक्ष के रोपण होने के बाद से ही दोनों देशों के मध्य मैत्री सम्बन्ध और अधिक सुदृढ़ हुए, जो आज भी सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं। इस मैत्री के पीछे निश्चय ही महाबोधि वृक्ष ही मूल कारण है। इस महाबोधि वृक्ष ने श्रीलंका के जन जीवन को अत्यन्त प्रभावित किया है। बिना इसके प्रयोग के वहाँ किसी भी प्रकार का धार्मिक समायोजन या संस्कार पूर्ण नहीं होते हैं।
• महाबोधि वृक्ष उत्थान और पतन की कथा
सम्राट अशोक के पश्चात्कालीन बुद्धासक्त और दृढ़ संकल्पी राजाओं ने उसी सम्मान और श्रद्धा के साथ बोधि चित्त से इस महाबोधि वृक्ष की वन्दना की। सम्राट् अशोक द्वारा निर्मित 'महाबोधि महाविहार' में पूजा कर्म तभी से चल रहा है। इस प्रकार प्राचीन काल में यह महाबोधि महाविहार अत्यन्त प्रसिद्ध हो गया था। इससे आकर्षित होकर अनेक राजाओं ने इस महाविहार के सौन्दर्य को बढ़ाने के प्रयास किये। इन राजाओं ने महाबोधि महाविहार के आस पास सुन्दर भित्तियों का निर्माण कराया। ये शुभ, संरक्षिका और कला पूर्ण भित्तियाँ आज भी सुशोभित हो रही हैं।
प्रथम शताब्दी में मित्रवंश की धर्म वत्सला तीन रानियों ने वज्रासन के आस पास सुरक्षा की दृष्टि से दीवारें बनवा दी थीं। दूसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित महाबोधि महाविहार को राजा कनिष्क ने वास्तु विज्ञान से और अधिक आकर्षक और ऊँचा कर दिया था। कुषाण वंश के ही एक अन्य राजा हुविष्क ने यहाँ विहार व स्तूपादि का निर्माण करवाकर इसकी सुन्दरता को और अधिक बढ़ाया। इसके पश्चात् गुप्त काल में भी महान् और धम्म वत्सल राजाओं द्वारा महाबोधि महाविहार की सुन्दरता का संवर्द्धन किया गया। श्रीलंका के महान् राजा मेघवर्मा (मेघवर्ण) ने चतुर्थ शताब्दी (लगभग ३८८ इसवी) में यहाँ तीन ऊँची मिनारों वाले संघारामों का निर्माण कराया था। पांचवी शताब्दी में श्रीलंका में राजकुलोत्पन्न होने पर भी युवावस्था में बौद्ध भिक्षु बनें एक प्रख्यात बौद्ध भिक्षु प्रख्यात कीर्ति ने यहाँ आकर विशेष पूजा, वन्दना की। इसके पश्चात् षष्ठ शताब्दी (लगभग ५८८ - ५८९) में महानाम नामक एक महान् बौद्ध भिक्षु ने भगवान् बुद्ध की एक सुन्दर तथा कला पूर्ण प्रतिमा दान स्वरूप महाविहार को भेंट की तथा बोधिमंड में शान्ति प्रदान करने वाली एक बुद्ध कुटी का निर्माण कराया।
• शशांक का महाबोधि वृक्ष पर आक्रमण
इसके पश्चात् बंगाल के धम्म विद्वेषी राजा नरेन्द्रगुप्त शशांक (या शशांक नरेन्द्र वर्द्धन) ने प्रायः षष्ठ शताब्दी के अन्त में इस महाबोधि वृक्ष को नष्ट करवाया दिया था। इतिहास में शशांक एक अत्यन्त क्रूर और अत्याचारी राजा हुआ। वह स्वयं हिन्दू होने के कारण बौद्ध धम्म के प्रति विद्वेष रखता था। उसने बौद्ध धम्म को समाप्त करने के लिए क्या कुछ नहीं किया? उसने हजारों भिक्षुओं को मरवा दिया तथा भिक्षुओं को मारकर उनका सिर लाने वाले को सोने की मुद्राएँ प्रदान की। उसने महाबोधि वृक्ष को समाप्त करने के लिए विशाल सेना लेकर आक्रमण किया। उसने इसे कटवाकर पूरी तरह जलाने का आदेश दिया। जब यह महावृक्ष जल गया, तो उसने इसके मूल पर एक बहुत बड़ा लोहे का गर्म तवा रखवा दिया, ताकि यह महावृक्ष सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो जायें तथा पुनः बढ़ न सकें। इस मूर्ख को क्या पता कि उसने क्या किया।
सचमुच उसने इतिहास को शर्मसार किया। शान्ति के प्रतीक को इस अशान्ति और हिम्र तरीके से नष्ट कर दिया। शशांक ने जब महाबोधि वृक्ष को विनष्ट कर दिया, तब इसके विनाश से भारत में सर्वत्र धर्म की महती हानि हुई। तब आप पास भागकर छुपे हुए बौद्ध भिक्षुओं ने सोचा कि 'इस बोधि वृक्ष को किस प्रकार पुनर्जीवित किया जाये।'
तब अनेक प्रकार से विचार विमर्श करने के पश्चात् श्रीलंका के अनुराधपुर में संघमित्रा के द्वारा रोपित इसी महावृक्ष के उत्तराधिकारी या वंशज की शाखा को लाकर रोपित करने का विचार किया गया। फिर श्रीलंका के अनुराधपुर से बोधि वृक्ष की शुभ शाखा (टहनी) यहाँ पूरण वर्मा द्वारा रोपी गई।
पाल - राजाओं के काल में उनके संरक्षण और आश्रय में इस महाबोधि महाविहार को अत्यन्त प्रसिद्धि तथा ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। निश्चय ही वे राजा धन्य थे। महाबोधि महाविहार का महा वैभव इस काल में अत्यन्त प्रसारित हुआ। उस काल में सर्वत्र द्रुमवर (महाबोधि वृक्ष) का सम्मान था। ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भिक दशक में (अर्थात् १०१० इसवी में) महाराजा महिपाल ने यहाँ महाबोधि महाविहार के सौन्दर्य और मरम्मत का कार्य कराया था। बारहवीं शताब्दी में फिर श्रीलंका देश के नागरिक उदयश्री (उदयसिरि) ने इस महाबोधि महाविहार में भगवान् बुद्ध की अत्यन्त सुन्दर व आलोक से परिपूर्ण प्रतिमा स्थापित कराई।
• बख्तियार खिलजी का महाबोधि वृक्ष पर आक्रमण
तेरहवीं शताब्दी में (प्रायः १२०५ में) दुर्भाग्यवशात मूर्ख तुरुष्क (तुर्की) आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी (इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी) ने महान् राजाओं द्वारा निर्मित व संवर्द्धित महाविहार के आदिम स्तूप को पूरी तरह से नष्ट कर दिया था। क्रूर खिलजी का आक्रमण वैसा ध्वंसकारी था कि बहुत समय तक इस महाबोधि महाविहार का उद्धार नहीं हो सका। यह इस महाविहार का सबसे विपरीत समय था।
बाद में तेरहवीं शताब्दी में ही (लगभग १२३४ इसवी में) इसके दर्शन करने की अभिलाषा से तिब्बतीय यात्री धर्मस्वामी यहाँ आया। उसके वर्णन के अनुसार उस काल में बोधगया में पूरी तरह विरानी छाई हुई थी। उसने उल्लेख किया।
'तुरुष्क तुर्की) या मुस्लिम सेना के आतंक से भयभीत बौद्ध भिक्षु यहाँ से चारों ओर चले गये। मुस्लिम आक्रामकों ने महाविहार के आधार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। उससे जो हानि हुई है, उसे कभी पूरा नहीं किया जा सका। कहा जाता है कि आक्रमण के समय उसमें रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने किसी तरह मिल जुलकर महाविहार में जल्दी जल्दी वहाँ की ईंटों से भगवान बुद्ध की प्रतिमा को बन्द कर दिया। भगवान् बुद्ध की प्रतिमा को बचाने के लिए उसे महाविहार में सुरक्षित रखकर उस पर लेप कर दिया गया तथा महाविहार के द्वार पर महेश की प्रतिमा रख दी गई थी। महाबोधि महाविहार की रक्षा के निमित्त अनेक प्रयास किये गये तथा उसमें रखी गई महादिव्य तथा पूजनीय प्रतिमा को किसी भी उपाय से रक्षा करने का संकल्प किया गया।'
बाद में अशोक, छल्ल नामक भगवान् बुद्ध के परमोपासक तथा धम्म के प्रति आसक्त राजा ने इस महाबोधि महाविहार का पुनरुत्थान कराया। राजा बुद्धसेन के महान् प्रतापी तथा सदाचरण शील पुत्र जयसेन भी अपने श्रेष्ठ कार्यों और सत्कीर्ति से निश्चय ही श्रेष्ठता को प्राप्त हुए। उन्होंने महाबोधि महाविहार की उन्नति में अत्यधिक योगदान किया। उन्होंने अनेक ग्रामों से प्राप्त आय साक्षात महाविहार को समर्पित कर दी, जिसे प्राप्त करके यह महाविहार अत्यधिक खुशहाल हो गया था। इसके बाद राजा जयसेन ने तीनों पिटकों के परम ज्ञाता श्रीलंका के मूल निवासी बौद्ध भिक्षु मंगल स्वामी को महाविहार के संरक्षण तथा पूजा अर्चना आदि का सकल दायित्व सौंप दिया था तथा उन्हें इसका दायित्व सौंपकर वे स्वयं इसकी चिन्ता से मुक्त हो गये।
• ब्रह्मदेश (बर्मा) का अनुग्रह
इसके पश्चात् तेरहवीं शताब्दी में ही वर्मा देश के बुद्धाभिमानी और प्रज्ञावन्त बौद्धानुयायियों ने इस महाबोधि महाविहार को अत्यधिक दान प्रदान करके इसे सुसमृद्ध कर दिया था तथा इसके सौन्दय विवर्धन के लिए प्रयास किये। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी में बंगाल के शासक छग्लराज की प्रिय और यशस्विनी रानी ने इस महाविहार की मरम्मत तथा सौन्दर्याकरण कराया। किन्तु दुर्भाग्य से अत्यन्त घने व डरावने वन, बौद्ध पर्यटकों व दर्शनार्थियों के अभाव तथा सोलहवीं शताब्दी में शैवों के आक्रमण के कारण इस महाविहार की अवनति होने लगी। यह काल भी महाबोधि महाविहार के जीवनक्रम में अत्यन्त दुर्भाग्यमय तथा अन्धकारपूर्ण रहा।
• शैव महन्तों द्वारा अतिक्रमण
शैव मतानुयायी गिरियों ने आक्रमण करके महाबोधि महाविहार से वहाँ निवास करने वाले बौद्ध भिक्षुओं को भगा दिया अथवा उन्हें मौत के घाट उतार दिया था तथा उन्होंने महाबोधि महाविहार के आस पास हिन्दू धर्म के मठों का निर्माण करवा दिया था। सोलहवीं शताब्दी में इन शैव महन्तों ने महाबोधि महाविहार को स्वयं हड़प लिया तथा इन मठों के स्वामी बन बैठे। इस प्रकार महाबोधि महाविहार इन शैव महन्तों अथवा गिरियों के हाथ में चला गया। लगभग १५६० में इन शैव (गिरि) महन्तों के आदि पुरुष घमंडी गिरि ने यहाँ प्रथमतया मठ का निर्माण कराया था। यही से विधर्मियों के द्वारा महाविहार पर कब्जा करने के कालिमामय तथा अन्धकारपूर्ण इतिहास का आरम्भ होता है।
बाद में भारत आकर दुष्ट और आततायी मुसलमान आक्रमणकारियों ने पहले तो यहाँ के देशवासियों पर अनेक अत्याचार किये, किन्तु कालान्तर में उन्हें तुष्ट करने की नीति के तहत अनेक प्रकार के प्रलोभन तथा लाभ देकर उन्हें अपना गुलाम बना दिया। अपनी इसी नीति के तहत प्रायः १७२७ में तत्कालीन महन्त को मुस्लिम शासक महमूद शाह ने दो अत्यन्त समृद्ध और उन्नत गाँवों की जमींदारी (मालगुजारी) उपहारस्वरूप दी थी। इन गाँवों की आय से प्राप्त धनराशि से मठ की आय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई तथा उसी समृद्धि के फल स्वरूप महन्त के मन में लालच पैदा होता गया और इस प्रकार कालान्तर में धीरे धीरे बोधगया का महाबोधि महाविहार उस मठ के अधीन होता चला गया। फिर तो आतंक और हिंसा के बल पर मठ के महन्तों ने बौद्ध अनुयायियों को महाविहार के आस - पास भी फटकने नहीं दिया तथा मुगल शासकों से इसे प्राप्त करके इस पर अपना स्थायी अधिकार स्थापित कर लिया था। उन महन्तों ने महाबोधि महाविहार के बाहरी द्वारों तथा भित्तियों पर महेश्वर तथा अन्य देवी - देवताओं के चित्रों को उकेर लिया था।
फिर जब भारत पर अंग्रेजों ने शासन करना आरम्भ किया, तब १८११ में महान् यूरोपियन विद्वान डॉ . बुचानन हेमिल्टन बोधगया आयें। उन्होंने यहाँ आकर महाबोधि महाविहार के दर्शन किये। उसने इसे अत्यन्त जीर्ण शीर्ण अवस्था में पाया तथा इसके विषय में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव भी लिखा। तब से यहाँ गिरियों का कब्जा कुछ कम हुआ।
बर्मा (म्यांमार) देश के बुद्धानुयायी तथा धम्म के अनुसार शासन करने वाले महान् राजा ने (प्रायः प्रायः १८२० में) महाबोधि महाविहार की मन को झकझोरने तथा अत्यन्त दु:खी कर देने वाली दुःस्थिति को जानकर उस समय एक सर्वश्रेष्ठ राजदूत को चुनकर बोधगया के महाबोधि महाविहार को उन्नति की इच्छा से यहाँ भेजा। राजा ने प्रस्थान के समय उस राजदूत को बोधगया को पवित्र भूमि का मान चित्र दिलाकर महाबोधि महाविहार के मूल स्थान को देखकर उसे चिह्नित करने की आज्ञा दी। गयाभूमि पहुँचकर घने तथा डरावनों वनों में उस राजदूत का मतिभ्रम हो गया। भ्रम के कारण वह इस कार्य को सम्पादित नहीं कर पाया तथा डरा हुआ वह असफल होकर वापस चला गया।
कालान्तर में १८२३ में बुद्ध के परम भक्त तथा बौद्ध परम्परा के महान् संरक्षक राजा वाजिदो ने पुनः अन्य दूत को तैयार करके बोधगया भेजा। उसने दूत को निर्देश दिया कि 'महाविहार में चिरकाल तक पूजा अर्चना का प्रबन्ध करें, इसका सम्पूर्ण व्यय बर्मा देश के राजकोष से किया जायेगा।'
बोधगया पहुँचकर भगवान् बुद्ध के उस परम उपासक ने यथाविधि भगवान् बुद्ध तथा महाबोधि वृक्ष की महान् उत्सव के साथ पूजा अर्चना की। महार्चना सम्पादित करने के पश्चात् भगवान् बुद्ध का वह परमोपासक महाबोधि महाविहार में ही रहकर दीर्घ काल तक भगवान् बुद्ध तथा महाबोधि वृक्ष की पूजा अर्चना करता रहा। किन्तु काल के विपरीत प्रभाव के कारण वह वहाँ अधिक काल तक नहीं रह सका। वहाँ युक्ति से ब्राह्मणों (गिरियों, शैवों या महन्तों) के ही एक शिष्य को पूजारी के रूप में नियुक्त करके वह चला गया। जाने के पूर्व उसने उस ब्राह्मण शिष्य को सभी का कल्याण और मंगल करने वाली बौद्ध धर्म की पूजा प्रणाली अच्छी तरह से समझा दी थी। इसके पश्चात् बर्मा देश के राज कोष से ही इस महाबोधि महाविहार का सम्पूर्ण व्यय होने लगा था।
बर्मा देश के दूत के जाने के पश्चात् पुनः महाबोधि महाविहार की आय को देखते हुए धीरे धीरे लालची महन्तों ने पुनः यहाँ अपना अधिकार जमाना शुरु कर दिया। उन बुद्ध निन्दक ब्राह्मणों ने यहाँ अनेक हिन्दू देवी - देवताओं, हिन्दू प्रतीक चिन्हों तथा अन्यान्य मूर्तियों की स्थापना करनी आरम्भ कर दी। इस प्रकार इस महाबोधि महाविहार का हिन्दूकरण करने का प्रयल आरम्भ कर दिया गया। निश्चय ही उन दुष्ट ब्राह्मणों का यह व्यवहार अनुचित ही था।
१८३२ में पुरालेख के जानकार तथा गया जिले के प्रधान न्यायाधीश मिस्टर हाउथोर्न ने बोधगया के महाबोधि महाविहार के खण्डहर हो चुके स्थलों का अवलोकन किया। महाविहार के अवशेषों का अवलोकन करने के पश्चात् वहाँ उपस्थित बौद्ध उपासकों तथा धर्मानुयायियों को इसके जीर्णोद्धार का आश्वासन देकर वह भी चला गया।
इस प्रकार अब अपनी जीर्ण शीर्ण, दयनीय तथा दीन दशा को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे महाबोधि महाविहार करुण विलाप कर रहा हो तथा अपने ही वैभवशाली अतीत की यशोगाथा को याद कर करके वह दुःखी हो रहा हो। सचमुच यह जगत की कैसी दशा है कि कभी कोई महान् वैभव से रहने वाला भी अतीव दीनावस्था को प्राप्त हो जाता है?
कालान्तर में बर्मा देश के प्रज्ञाशील महाराजा मिंडनमिन ने महाबोधि महाविहार की स्वच्छता, सौन्दर्याकरण और संस्कार करायें। उन्होंने नूतनतया यहाँ पूजा अर्चना आदि कार्यक्रमों की व्यवस्था आरम्भ करवाई तथा यह लगातार इसी प्रकार चलती रहे, ऐसी व्यवस्था कराई। महाराज मिडनमिन ने महाबोधि महाविहार में पूजा कराने के लिए स्वयं राजकीय व्यय से एक आचार्य की नियुक्ति की तथा वन्दनोपासना सतत जारी रखने की व्यवस्था करवाई। थोड़े दिनों बाद ही बर्मा के महाराजा ने स्वयं यहाँ उपस्थित होकर भक्ति और अतीव भव्यता के साथ भगवान् बुद्ध तथा बोधिवृक्ष की पूजा की। फिर बर्मा के इस धम्म वत्सल तथा महाबोधि महाविहार के प्रति विशेष रूप से चिन्तित तथा इसकी चारुता करने के अभिलाषी महाराजा ने भारत सरकार से महाविहार की मरम्मत तथा जीर्णोद्धार के लिए अनुमति मांगी।
१८४६ में सर जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम के सहकर्मी तथा अतीव परिश्रमी और विद्वान व्यक्ति श्रीमान मारहम किट्टो ने ब्रिटिश सरकार के निर्देशानुसार निरीक्षण करके सरकार के पास विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। किन्तु यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि तात्कालिक उदासीन ब्रिटिश सरकार ने उस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया।
प्रसारित - अरविंद भंडारे BSNET वाट्स अप ग्रुप

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