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● महाबोधिद्रुमविजयम्
लेखक - प्रफुल्ल गडपाल
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◆ भूमिका ◆
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• सर जनरल कनिंघम और महाबोधि वृक्ष
महान् पुरातत्त्वविद सर जनरल कनिंघम १८६१ में यहाँ पहुँचे, उन्होंने महाविहार को अत्यन्त दीन अवस्था में पाया। उन्होंने अत्यन्त परिश्रम से महाबोधि महाविहार के उत्थान के लिए एक विवरण पत्र बनाकर सरकार को भेजा। कालान्तर में उन्होंने पुनः भारत सरकार को विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करके महाविहार के जीर्णोद्धार की बात की तथा प्रतिवेदन में कड़े शब्दों का प्रयोग किया। महाबोधि महाविहार के उद्धार तथा सौन्दर्गीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए उस प्रज्ञावान पुरुष ने शासन को अपनी वेदना प्रस्तुत करते हुए प्रतिवेदन में सरकार से अपने संरक्षण में इसके उद्धार की आवश्यकता बताई। अपने प्रतिवेदन में जनरल कनिंघम ने लिखा कि 'भारत की हित हिमायती कहीं गई अंग्रेजी सरकार यदि इन कामों को नहीं करेगी, तो क्या फ्रांसीसी और पुर्तगाली करेंगे? हमारी सरकार यह अच्छी तरह जान ले।'
जनरल कनिंघम के उन कठोर शब्दों से करंट का झटका सा महसूस करते हुए प्रभावित होकर सरकार ने शीघ्र ही डॉ. राजेन्द्रलाल मित्र को बोधगया महाविहार के निरीक्षण के लिए भेजा। डॉ. राजेन्द्रलाल मित्र ने बोधगया में एक वर्ष तक रहते हुए अत्यन्त परिश्रम से महाबोधि महाविहार के उद्धार तथा विकास के लिए एक विस्तृत प्रतिवेदन तैयार करके उसे सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया। इस घटना के पूर्व गया जिले के जज मि. फर्गुसन ने भी एक विज्ञप्ति का प्रकाशन करवाकर महाबोधि महाविहार के उद्धार हेतु निवेदन किया था।
अतीव दु:ख की बात है कि १८७० में प्रचण्ड आंधी, तुफान के कारण एक बार फिर महाबोधि वृक्ष को अतीव दु:खद क्षति पहुँची और वह महावृक्ष लगभग धराशायी हो गया। इसी दौरान बर्मा सरकार को महाबोधि महाविहार की मरम्मत तथा विकास के कार्यों में इच्छुक जानकर ब्रिटिश सरकार द्वारा उसे इसके उद्धार तथा सौन्दर्गीकरण का कार्य सौंपा गया। इस प्रकार १८७५ में बर्मा के राजा मिंडनमिन ने भारत सरकार की अनुमति से यहाँ महाबोधि महाविहार की मरम्मत का कार्य आरम्भ कराया। किन्तु इसी दौरान अंग्रेजी सरकार ने इस कार्य के सन्दर्भ में एक और नई शर्त रख दी कि बर्मा सरकार यहाँ कोई नया निर्माण कार्य कभी भी नहीं करेगी, केवल महाबोधि महाविहार का पुनरुद्धार कार्य ही करेगी।
बाद में किसी तरह अनुमति प्राप्त करके जनसेवा और प्रजा कल्याण को देखते हुए मरम्मत का कार्य करते हुए बर्मा सरकार ने यहाँ एक धर्मशाला बनवाई थी। इस पुण्यमयी धर्मशाला का लोककल्याण में बहुत उपयोग हुआ, किन्तु दुर्भाग्य से बाद में महत ने इसे भी चारदीवारी बनवाकर मठ के अधीन कर लिया तथा इस पर अपना कब्जा जमा लिया। उन्हीं दिनों खुदाई करने वाले मजदूरों के प्रमाद तथा असावधानी के कारण महाबोधि वृक्ष को बहुत क्षति हुई। इस खुदाई में यह महान् ऐतिहासिक बोधि वृक्ष पूरी तरह गिर गया। इस कार्य के दौरान यह एक बहुत बड़ी हानि थी। फिर भी महाबोधि महाविहार के विकास का कार्य वृक्ष के गिरने पर भी अनवरत चलता ही रहा। १८७७ में पुनः डॉ. राजेन्द्रलाल मित्र को ब्रिटिश सरकार की ओर से बर्मा सरकार के कार्यों का समुचित निरीक्षण करने हेतु बोधगया भेजा गया। इस निरीक्षण में बर्मा प्रशासन के मरम्मत कार्य को सन्तोषजनक न पाकर डॉ. राजेन्द्रलाल मित्र ने भारत सरकार को प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। तब भारत सरकार ने इस कार्य को उसी स्थिति में बन्द करवाकर मि. जे. डी. बेगलर के नेतृत्व में जनरल कनिंघम तथा डॉ. राजेन्द्रलाल मित्र के निर्देशन में मरम्मत तथा उत्खनन का कार्य पुनः आरम्भ कराया। उनके प्रयासों से ही आधुनिक महाबोधि महाविहार का यह दिव्य स्वरूप समस्त विश्व के समक्ष साकार रूप ले सका। तब जाकर बोधगया में महाबोधि महाविहार की खुदाई सुव्यवस्थित तथा नियोजित ढंग से १८७७ में आरम्भ हुई तथा तीन वर्षों के कठिन प्रयासों के पश्चात् 1880 में यह कार्य सम्पन्न हुआ।
१८७८ में बर्मा देश के राजा मिंडनमिन की मृत्यु के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी थीबो बर्मा राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ तथा शासक बनकर वह धम्म कार्य अबाधतया करता रहा, किन्तु कुछ समय बाद उसका अंग्रेजों के साथ विवाद हो गया। इससे अंग्रेजों ने उसे बंबई प्रेसीडेंसी के रत्नागिरि नामक स्थान में कैद कर लिया। महाबोधि विहार के इतिहास में यह अत्यन्त दु:ख का विषय रहा।
१८८१ में बोधगया से महाबोधि वृक्ष के गिर जाने पर धर्माचारी जनरल कनिंघम ने श्रावस्ती के जेतवनाराम में विराजित 'आनन्द बोधि वृक्ष' की एक शाखा को लाकर बोधगया में बोधि वृक्ष के वास्तविक तथा अतीव पवित्र स्थल पर लगवाया, वहीं शाखा अब आश्चर्यकारी रूप से बोधगया में महाबोधि वृक्ष के रूप में विद्यमान है। इस प्रकार अल्प समय के लिए अपनी महान् विरासत को खोकर महाबोधि वृक्ष ने अपनी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया। आज कल जो बोधि वृक्ष है, वह चौथी पीढ़ी का है।
१ जनवरी १८८६ को बर्मा देश पर अंग्रेजों ने अपना कब्जा करके वहां अपना शासन स्थापित किया। फिर अंग्रेजों ने भारत में बर्मा राज्य के धन से पूजा अर्चना करने वाले बौद्धाचार्य को बलात हटा दिया गया। बौद्धाचार्य को महाबोधि महाविहार से हटाकर विहार को पुनः महंत के हवाले कर दिया गया। तब से महाविहार पर महंत का एकाधिकार हो गया।
• अनागारिक धम्मपाल का आगमन : एक नवोदय
२२ जनवरी १८९१ में श्रीलंका के महान् बौद्ध विद्वान और बौद्ध क्रान्ति के अग्रदूत आचार्य अनागारिक धम्मपाल अपने जापानी मित्र भिक्खु कोजान के साथ सारनाथ होते हुए बोधगया पहुंचे। इस महाविहार के उद्धार की कथा पुनः यहाँ से प्रारम्भ होती है। निश्चय ही महाबोधि महाविहार के पुनरुद्धार कार्यों का यह एक नया अध्याय था। वस्तुतः अनागारिक धम्मपाल के प्रयासों और सत्कर्मों के कारण ही आधुनिक महाबोधि महाविहार इस उन्नत और विकसित अवस्था में दिखाई दे रहा है। महाविहार पर महंत का अतिक्रमण और कब्जा होने के कारण उसका रख रखाव ठीक से नहीं हो रहा था। चारों ओर रख रखाव के अभाव में जंगली झाड़ियाँ उग आई थीं और महाविहार का कोई रखवाला भी नहीं था। इस प्रकार महाविहार की दुर्दशा को देखकर उन्हें अतीव दुःख हुआ। महाबोधि विहार की दुर्दशा को देखकर वे जमीन पर बैठकर फूट फूटकर रोने लगे। किन्तु अचानक वे उठे और उन्होंने महाविहार को महंत से स्वतंत्र कराने हेतु कठोर संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने कठिन प्रयास शुरु कर दिये। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। फिर उन्होंने श्रीलंका से बोधि वृक्ष लाकर पुनः यहाँ लगा दिया।
इस प्रकार अनागारिक धम्मपाल के प्रयासों से बोधगया में पुनः रौनक लौटने लगी। लोग बुद्ध विहार में दर्शन के लिए आने लगे, सर्वत्र अत्यन्त उत्साह से उत्सव होने लगे तथा नित्य प्रति बुद्ध वन्दना आरम्भ हुई। महाविहार में रौनक लौटने पर थोड़े समय बाद ही महंत ने पुन: महाविहार पर अधिकार जमाना शुरु कर दिया। इस अवस्था से आहत होकर धम्मपाल ने शीघ्र ही श्रीलंका, बर्मा और भारत में अपने मित्रों तथा बौद्ध संगठनों को पत्रों के माध्यम से आर्थिक मदद की गुहार लगाते हुए महाविहार की दयनीय स्थिति से अवगत कराया। फिर उन्होंने १८९१ में महाविहार के संरक्षण, उद्धार तथा प्रबन्धन की दृष्टि से 'महाबोधि सोसाइटी ऑफ इण्डिया' की स्थापना की और बौद्ध जगत को इस सोसाइटी तथा समकालीन बौद्ध जगत की स्थिति तथा दशा से अवगत कराने अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध पत्रिका 'महाबोधि जर्नल' का प्रकाशन आरम्भ किया।
इसी दौरान पटना नगर में बौद्धों की एक बहुत बड़ी सभा आयोजित हुई थी, जिसमें निर्णय लिया गया था कि महाबोधि महाविहार पर पूर्णतया बौद्धों का अधिकार होना चाहिए। इससे सम्पूर्ण विश्व का महाबोधि महाविहार की ओर आकर्षण बढ़ा और साथ ही साथ पर्यटन का सिलसिला भी बढ़ा। लोगों के आवागमन के कारण पर्यटन से होने वाले आर्थिक लाभ को अर्जित करने की महत्त्वाकांक्षा तथा महाविहार पर स्वामित्व की अत्यधिक हार्दिक इच्छा से महन्त ने मुकदमेबाजी और गुंडा गर्दी आरम्भ कर दी और इस दौरान अनेक हिंसक वारदातें भी हुई।
१८९३ में शिकागो में आयोजित धर्म संसद में अनागारिक धम्मपाल ने विश्व को सम्बोधित करते हुए बौद्ध धम्म के उत्थान के लिए आह्वान किया। उन्होंने विहार के उद्धार तथा कानूनी रूप से महाविहार बौद्धों के हाथों में हो, इसलिए संघर्ष किया।
अनागारिक धम्मपाल ने सारनाथ में भी विहार का जीर्णोद्धार कराया तथा बोधगया स्थित महाबोधि महाविहार में पुनः पूजा अर्चना आरम्भ करवाई। इस दौरान उन्होंने अनेक अस्पताल, शिक्षा संस्थाएँ तथा धर्मशालाएँ स्थापित करवाकर समाज में बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के प्रयास किये। तब जाकर उस प्रज्ञा पुरुष के सत्प्रयासों से बौद्धों को महाविहार में पूजा अर्चना का मंगल अवसर मिल सका।
१९२२ में गया में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में छपरा कांग्रेस कमेटी के मन्त्री होने के नाते महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी सरकार को प्रस्ताव भेजा था कि बोधगया महाविहार बौद्धों को सौंप दिया जाये। कांग्रेस ने उनके इस प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया, जिससे आहत होकर उन्होंने कांग्रेस को ही छोड़ दिया था। बौद्ध धर्म के महान् विद्वान तथा भिक्षु भदन्त आनन्द कोसल्यायन ने भी इस महाविहार के उद्धार के लिए पूर्णत: कटिबद्ध होकर सहस्रशः प्रयल किये। लाख प्रयासों के बाद अन्ततोगत्वा १९४९ में महंत विहार का मुकदमा हार गया। बौद्ध गया के इस ऐतिहासिक महाबोधि महाविहार का प्रबन्धन और अधिकार पुनः बौद्धों के हाथों में आ गया। इस प्रकार अनेक वर्षों के प्रयत्न सफल हुए।
थोड़े ही दिनों के बाद में अंग्रेजों ने 'फूट डालो और शासन करो' की दुष्ट नीति के तहत कानूनी अधिकार प्राप्त होने को महाविहार से बलात हटा दिया गया तथा महंतों को खुश करने के लिए इस महाविहार की डोर उनके हाथ में सौंप दी। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने महाविहार के विवाद की समाप्ति के लिए दो सदस्यीय समिति का गठन करके समुचित जांच के लिए निर्देश दिया। इस समिति में न्यायाधीश सुरेंद्रनाथ तथा हरप्रसाद शास्त्री दो विद्वान सदस्य नियुक्त किये गये थे। जांच के बाद दोनों सदस्यों ने वायसराय के समक्ष अपनी राय प्रस्तुत की। दोनो की राय परस्पर विरोधी थी। निष्पक्ष स्वभाव के हरप्रसाद शास्त्री की राय बौद्धों के पक्ष में थी, जबकि न्यायाधीश सुरेन्द्रनाथ की महंत के पक्ष में। फिर दुर्भाग्य, सरकार ने दूसरे व्यक्ति यानि न्यायाधीश सुरेंद्रनाथ की ही राय मानी तथा बौद्धों को बोधगया महाविहार से निष्कासित कर दिया।
तात्कालिक महंत हरिहरनाथ गिरि ने भी अंग्रेजों का इस प्रकार का रवैया देखकर उत्साहित होकर महाबोधि महाविहार के लिए दीवानी मुकदमा दायर कर दिया। अनागारिक धम्मपाल तब भी लड़ते ही रहे। किन्तु फिर भी महाविहार पर महतों का अधिकार हो गया तथा १९५२ तक बना रहा।
(क्रमशः) To be continued...
लेखाचा उर्वरित मजकूर पुढील भागात वाचा.

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